कुलदीप यादव - इंस्टीट्यूटऑफ मैनेजमेंट स्टडीज एंड रिचर्च, एमडीयू कैम्पस, रोहतक |
क्या सचमें हम सब वीआईपी हो गए हैं? लालबत्ती की परम्परा समाप्त करते हुए प्रधानमंत्री का बयान था कि अब आप सब वीआईपी हैं। सुनकर दिल को बहुत सुकून मिला था और लगा कि शायद अब गरीबों को भी वीआईपी जैसी तवज्जो मिलेगी, लेकिन शायद हर उम्मीद का जवाब समय से बेहतर कोई नहीं दे सकता।
अभी हाल ही में जब केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी पीलीभीत के दौरे पर थीं तो अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई। उन्हें फटाफट वहां के स्थानीय अस्पताल में भर्ती कराकर बड़ी फुर्ती से सभी टेस्ट कराए गए बेहतर इलाज के लिए चंद घंटों में नज़दीक के अच्छे अस्पताल में स्थानांतरित किया गया। सभी न्यूज़ चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज में यह खबर थी, क्योंकि वे केंद्रीय मंत्री थीं। मैं यह सब इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि दूसरे ही दिन एक खबर और सुनने को मिली जो एक गरीब लाचार इंसान के वीआईपी होने की असलियत बता रही थी कि आम आदमी का वीआईपी होना महज एक ख्वाब है। कर्नाटक के एक सरकारी अस्पताल में एक बुजुर्ग महिला के कई बार व्हीलचेयर मांगने पर भी व्हीलचेयर मिलने के कारण उसे बीमार पति को चादर पर लिटाकर उसे खींचकर जांच करवाने के लिए ले जाना पड़ा। इस घटना से केवल हमारे गरीब लोगों का वास्तविक दर्जा पता चलता है बल्कि हमारे समाज में मानवीय संवेदनहीनता के बारे में बहुत पता चला है। जाहिर है सिर्फ लालबत्ती हटाने से वीआईपी आम आदमी नहीं बन सकता बल्कि आम नागरिक वीआईपी तो छोड़िए मानवीय दर्जे की भी उम्मीद नहीं कर सकता। यह घटना बताती है कि जहां लोगों को जमीन पर रेंगते हुए जांच के िलए जाना पड़े वहां का मानव विकास सूचकांक कितना ऊपर हो सकता है। वीआईपी के लिए असंभव सेवाएं भी संभव बना दी जाती हैं और दूसरी तरफ आम जनता के लिए जरूरी सेवाएं भी असंभव होती हैं। जब तक हम अपनी मानसिकता सोच से लालबत्ती नहीं हटाएंगे तब तक वीआईपी संस्कृति को समाप्त करने का सपना देखना भी रेगिस्तान में फूलों के बगीचे लगाने के समान है। अगर हमें वीआईपी संस्कृति समाप्त करना है तो अपनी विचारधारा से लालबत्ती हटानी होगी।
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